शीर्ष पंजाबी साहित्यकार बलबीर माधोपुरी की "छांग्या रुक्ख" का समाजशास्त्रीय आंकलन
बलबीर माधोपुरी:2007: छांग्या रुख,नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, आई यस बी यन नम्बर 81-8143-645-8, 232 पन्ने, मू्ल्य 300 रूपये; ( मूल पंजाबी से हिन्दी में अनुवादक : सुभाष नीरव) हरनाम सिंह वर्मा
शीर्ष पंजाबी साहित्यकार बलबीर माधोपुरी की "छांग्या रुक्ख" का समाजशास्त्रीय आंकलन
बलबीर माधोपुरी:2007: छांग्या रुख,नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, आई यस बी यन नम्बर 81-8143-645-8, 232 पन्ने, मू्ल्य 300 रूपये; ( मूल पंजाबी से हिन्दी में अनुवादक : सुभाष नीरव)
हरनाम सिंह वर्मा
जुलाई 1955 को पंजाब के जालंधर ज़िले के माधोपुर गाँव में जन्मे बलबीर माधोपुरी पेशे से पत्रकार हैं लेकिन पंजाबी साहित्य में अपनी विलक्षण शैली और अनूठे रचना कौशल के कारण उनका समकालीन पंजाबी साहित्य में एक अनोखा और विशिष्ठ स्थान है. एक साहित्यकार के रुप में उनके 3 काव्य और 9 गद्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अतिरिक्त एक अनुवादक के रुप में उन्होंने 30 से अधिक पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद किया है और 40 अन्य पुस्तकें संपादित की हैं. माधोपुरी ने साफ़ किया है कि उनकी यह आत्मकथा उनके जीवन के मात्र 45 वर्षों (1955 से 2000 तक) का विवरण और मुख्यतः पंजाबी समाज में माधोपुरी द्वारा भुक्तभोगी यथार्थ ही पेश करती है. इसकी अनूठी शैली, कथ्य और उसकी मार्मिकता के कारण अनायास ही इसकी तुलना ओम प्रकाश वाल्मीकि की “जूंठन”, और तुलसीराम की “मुर्दहिया” और “मणिकर्णिका” से करने से नहीं बचा जा सकता. वाल्मीकि जी ने जूंठन का दूसरा खंड लिख कर उनकी पेशेवर जिन्दगी का उतराद्ध भी उतनी ही मार्मिकता से पेश कर दिया था. तुलसीराम जी अपनी जीवनी का जे यन यू खंड(जिसे वह "जे यन यू मौसी" का नामकरण भी कर चुके थे) पूरा करने से पूर्व ही असमय दिवंगत हो गए और उनकी आत्मकथा अधूरी रह गई. आशा की जा सकती है कि माधोपुरी भी अपनी जीवनी की यह कमी निकट भविष्य में अवश्य पूरी करेंगे.
चर्चित दलित आत्म-कथाओं की कड़ी में ओम प्रकाश वाल्मीकि की " जूंठन" का प्रथम खंड 1997 में और दूसरा खंड 2015 में प्रकाशित हुआ. हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा ने कोई घास नहीं डाली. उसे जब दलित संसार ने सर्वश्रेष्ठ दलित आत्मकथा का तमगा दे दिया और वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वोत्तम साहित्यिक कृति मान ली गई तभी हिन्दी के समालोचको ने उसकी अस्मिता स्वीकार करना ही अपनी भलाई समझी!.माधोपुरी की आत्मकथा "छांग्या रुक्ख"(काँटा छांटा हुआ दरख़्त) पंजाबी में 2002 में प्रकाशित हुई थी. शीघ्र ही वह पंजाबी की श्रेष्टतम कृतियों में गिनी जाने लगी. सुभाष नीरव द्वारा अनूदित उसका हिन्दी संस्करण 2007 में प्रकाशित हुआ. इसके उपरांत ही तुलसीराम की "मुर्दहिया" 2010 में और "मणिकर्णिका" 2014 में प्रकशित हुई थीं और वाल्मीकि और माधोपुरी की तुलना में तुलसीराम को हिन्दी पट्टी के चिंतकों के दो उप वर्गों ,साहित्यकारों और समाज विज्ञानियों, दोनों ही ने हाथो हाथ लिया और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की! मुझे हिन्दी साहित्य के समालोचको का यह तुलसीराम का गुणगान और माधोपुरी की सर्वांगीय उपेक्षा एक बड़े ऊँचे दर्ज़े का दोगलापन लगा! मैंने तुलसीराम और माधोपुरी की आत्म्कथाओ को एक नहीं कई बार पढ़ा है और मुझे सिद्दत से यह अह्सास हुआ कि माधोपुरी के साथ न्याय नहीं हुआ. मैंने माधोपुरी की छंग्या रुक्ख के साथ हुए इस भेदभाव की प्रतिपूर्ति के लिए साहित्यिक और समाजशास्त्रीय दोहरा आँकलन लिखने का निर्णय लिया.
छांग्या रुक्ख को लिखने का सबब
इसे माधोपुरी ने स्व्यं ही स्पष्ट किया है. उन्होंने यह पाया कि देश के सबसे खुशहाल प्रांत पंजाब में धार्मिक दिखने वाले अनेक ग्रंथों का सृजन हुआ और विश्व का सबसे नया और मानववादी समझा जाने वाला सिक्ख धर्म जोर जुल्म के खिलाफ स्थापित हुआ. लेकिन इसके बावजूद उसी धरती पर वह सभ्याचार उत्पन्न नहीं हुआ जिसकी खातिर गुरु साहिबान ने संस्कृत और उसकी संस्कृति को त्यागा था....... सामाजिक और धार्मिक संस्थानों में दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार जारी रहा(पृष्ठ 15). आत्मकथा लिखने की इच्छा माधोपुरी में अचानक नहीं जागी. उनके दिल्ली आने पर वह मार्क्सवादी साहित्य के साथ साथ भारत के दलित साहित्य का अध्ययन पहले से अधिक करने लगे. उन्हें शिवराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ने सबसे अधिक व्यथित किया और वह स्व्यं की खोज में जुट गए. छांग्या रुक्ख लिखते समय कथ्य और शिल्प को अपने ग्रामीण माहौल और सभ्याचार के अनुरूप रखने के लिए माधोपुरी ने कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया. उनकी सहज-स्वाभाविक कथा उभरती गई जिसमें अपने समकालीनों और अपनी आने वाली पीढ़ियों को, अपने और अपने परिवार के बहाने, धर्म द्वारा ग़ुलाम बनाए गए दलित समाज की अमानवीय स्थिति से परिचित कराया जिसके कारण वे दुहरी-तिहरी मार झेल रहे हैं(पृष्ठ 15-16). माधोपुरी यह भी स्पष्ट करते हैँ कि यह खयाल उनके जेहन में हमेशा मौजूद रहा कि वह उन समस्याओं, असमानताओं ,बेइंसाफियो और घटनाओं को एकतरफा और भावुक हुए बग़ैर प्रस्तुत करें (पृष्ठ 16). पुस्तक को पढ़ने के उपरांत इसमें कोई शक़ या सुबह की कोई गुंजाइश नहीं हैँ कि माधोपुरी ने अपने इस निश्चय को छांग्या रुक्ख में बखूबी निभाया हैँ.
माधोपुर का सामाजिक परिदृश्य
माधोपुरी माधोपुर गाँव की सामाजिक,आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को एक श्रेष्ठ समाजशास्त्री की नजर से "मेरी जन्मभूमि" (छांग्या रुक्ख:19-27)शीर्षक के अंतर्गत दर्शित करते हैं. माधोपुर का दलित भाग भी एक सामूहिक निवास स्थल के रुप शेष सभी भागों के साथ स्थित अवश्य एक था लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक,आर्थिक और राजनैतिक रुप से दलित और सवर्ण अंग एक दूसरे पर निर्भर होते हुए भी नितांत कटे हुए थे. उनके अनुसार गाँव देखने के लिए एक जगह बना हुआ था, पर पीने का पानी लेने के लिए अपना अपना अलग अलग कुंआ हुआ करता था.अगर चमारो / चूहड़ो का कोई लड़का नहा-धो कर और बाल संवार कर निकलता,तो जट्टी उसके सिर पर मिट्टी डाल देती. विरोध करने पर उसकी इस लिए धुनाई होती कि वह जाटों की नकल या बराबरी करता है. जमीदार / नंबरदार उनसे बेगार करवाते .चमारो / चूहड़ो के अधिकारों में केंवल बेगार और मुफ्त में काम धन्धा करना शामिल था! मुर्दा जानवर भी उन्हें मुफ्त में ही उठाना होता था. देशी राजा लोगों ने उनके लिए तो कुछ किया नहीं था लेकिन जिन अंग्रेजों ने देश के अन्य हिस्सों में तमाम सामाजिक कुरीतिया जड़ से उखड़वा फेंकी उन्होंने भी पंजाब में अछूतों के लिए कुछ भी नहीं किया. स्वतंत्रता प्राप्ति के काफी समय बाद तक भी पंजाब के अछूत ज़मीन नहीं खरीद सकते थे. ऐसी स्थिति में अछूत ज़मीदारो और भू-स्वामियों के रहमोकरम पर निर्भर रहते, डर डर कर अपना समय काटते ;बेगार ना करने पर वह ज़ोर ज़बर्दस्ती करते,मारते-पीटते और अपमानित करते . माधोपुरी बड़ी मार्मिकता से कहते हैं कि अंग्रेजों से आजादी माँगने वालों को अपने गुलामों की आजादी का कभी खयाल नहीं आया बल्कि अपने धर्म ग्रंथों के नियमों के अनुसार उन्हें ग़ुलाम बनाए रखना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझा.माधोपुरी अंबेडकर के शब्दों को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि जिन पुस्तकों को पवित्र ग्रन्थ कहा जाता है,वे ऐसी ज़ालसाजियो से भरे हुए हैं जिनकी प्रवृति राजनीतिक है,जिनकी रचना पक्षपाती है और उनका मनोरथ और प्रयोजन है:कपट और छल. पंजाब में इसी जोरो-जुल्म के विरुद्ध मंगूराम मुगोवालिया ने "आदिधर्म मंडल" बनाया और सामाजिक असमानता के खिलाफ सामाजिक आंदोलन चलाया. पंजाब के द्विजो को "आजादी" 1947 में ही मिल गई थी लेकिन अछूतों से बेगार करवाने का मौरूसी हक 1957 में ही समाप्त हुआ.पंजाब के रमदसिया समुदाय कहने के लिए दलित हिंदू धर्म का हिस्सा हैं लेकिन वास्तव में यह धर्म उन्हें ग़ुलाम बनाने का एक माध्यम है .माधोपुरी कहते हैं कि ‘अछूत, हरिजन’ से ‘अनुसूचित जाति’ तक का सफर तय कर गए पर सामाजिक व्यवहार और उच्च जातियों में उतना बदलाव नहीं आया जितनी तेज़ी से इस वैज्ञानिक युग में आना चाहिये था .बहुत से क़ानून जिस भावना से बनाए गए थे, वे वास्तविक अर्थों में कार्यान्वित नहीं हो सके .माधोपुरी और उनका परिवार इसी माहौल में जीवन व्यतीत कर रहा था और माधोपुरी का लालन पालन इसी जद्दोजेहद और मायूसी भरे माहौल में हुआ.
बचपने का सामाजिक वातावरण
माधोपुरी ने “ कागज की गहरी लिखत" में (28-44) अपने बचपने के सामाजिक वातावरण को रेखांकित किया है. उनका परिवार बहुत बदा और गरीब परिवार होता था. खाने पीने की बड़ी किल्लत रहती थी. ऐसी स्थिति में चमार बच्चे गुरुद्वारे के परसाद के लिए एक दूसरे के ऊपर धँसे पड़े रहते थे लेकिन उन्हें गाली,धौंस के साथ आम सिक्ख से आधा परसाद भी ना मिलता. इसके बावजूद लालच में कई बच्चे कई कई बार परसाद लेते थे . माधोपुरी को मिट्टी खाने की आदत पड़ गई थी जिसके कारण पिता ने उन्हें कुँए में उलटा लटकाया और कस के पीटा. गरीबी का यह आलम था कि आग दूसरों के यहाँ से माँग कर लाते और दियासलाई की तीली की बचत करते .चाय में डाले जाने वाले गुड़ में अकसर कीड़े होते और माँ उन्हें निकालने के लिए गुड़ के घोल को छान कर चाय में डालती लेकिन उसके बावजूद भी चाय में मरे हुए कीड़े तैरते दिखाई देते. माधोपुरी चाय को पानी की तरह पी जाते. कपड़े एक ही जोड़ी हुआ करते थे जिसके कारण उन्हें धुलने का काम इतवार को ही होता. कच्छे के नेफे से ढूँढ कर जूँ मारने में उनका ढेर सारा समय लग जाता .गाँव के नल से जब भी वह पानी पीते,उनके बाद पानी पीने वाला जत्तोन का लड़का उसे सुच्च(शुद्ध) करता ,और उसके बाद ही पानी पीता. भूंख को शांत करने के लिए उन्होंने मरी हुई तिद्दियो को भी भून कर खाया. भूंखे होने के कारण तिद्दियान भी उन्हें बड़ी स्वादिष्ट लगीं . यह बात माधोपुरी के स्कूल में फैल गई और लड़के उन्हें "टिड्डी खाना" ,"टिड्डी खाना सप्प"(साँप) कहने लगे . लेकिन यह संबोधन टिड्डी दल की तरह जल्दी ही चला गया.
बाली उमरिया और प्रौढ़ उमर की मुसीबतें
छोटी उमर में माधोपुरी और उनके परिवार के अन्य बच्चों को ज़िंदगी की तल्ख हकीकतों में क्या क्या पापड़ बेलने पड़े, यह कदुई वास्तविकता "तिड़के शीशे की व्यथा" (45-55) और "थूहरो पर उगे फूल"(56-67) बड़ी बारीकी से बयाँ करते हैं.कोई भी जत्तोन की खेतों के मेड़ों की घास काट लेता लेकिन खेत से चारा काट लाने के आरोप पूरी चमारली पर ही लगता और उन्हें ही गलियाँ और धौंस इनाम मिलती.एक चमार लड़के फुम्मण ने प्रतिकार किया और उस पर बवाल खड़ा हो गया .मज़दूरी करने गए चमार को जट्ट के घर पर खाना लेने जाने पर दूर् से फेंकी रोटियाँ मिलतीं और उनकी जत्तियान गर्म दाल -साग ऐसे फेंकती जिससे शरीर पर छींटे पद जाते .माधोपुरी के घर में हमेशा ही पैसे की तंगी रहा करती और उसी के कारण रोज़ ही घर में कलह-क्लेश छिड़ जाता. घर के जरूरी खर्चों को पूरा करने के लिए बार बार साहूकार से कर्ज़ लेना पड़ता.फुर्सत ना मिलने और दूसरी जोड़ा कपड़े ना होने के कारण नियमित नहाना धोना नहीं हो पाता.शरीर गन्दे रहने के कारण बार बार खुजली हो जाती थी और पूरे बदन में बड़े बड़े घाव हो जाते थे. भूंख के कारण आधा गाँव चल कर जाटों के घर से लस्सी माँगने जाते. वहाँ दो दो चक्कर लगाने पड़ते और फिर भी बड़ी देर तक वहाँ सिर झुंका कर खड़ा होना पड़ता.जाटाँ की स्त्रियाँ सौ की आयु छूती उनकी दादी को नाम ले कर पुकारती . गायेन राम की होती थीं लेकिन माधोपुरी उनको चारा देते और खेलने -खाने के दिनों में भाड झोंकते .माधोपुरी ने बाप को कभी मैले की बाल्तिया ढोते, सूखे चारे के पत्ते,गन्ने के छिलके, कभी मक्की बोते हुए, कभी दादा के लिए लस्सी, चाय पानी ले जाते हुए,कभी पशुओं को पानी पिलाते हुए देखा(62). उनके घर में टूटी चारपाई थी जिसका बाण पुराना था, और घर में नितांत गरीबी,अंनपधता और औरतों की बड़ी बुरी हालत थी . विशेष आयोजनों के अवसर पर जाटों के यहाँ बर्तन मांजते तीसरा पहर आ जाता और जब भी खाने के लिए थाली उठाते तभी हुक्म मिलता कि फलाने आ गए हैं बर्तन धो दे.उनके घर के बच्चों को सवेरे उठ कर जाटों के घर पानी भरना पड़ता और स्कूल उसके बाद ही जां पाते. स्कूल की ड्रेस मिलने की बात ही नही पैदा होती थी क्योंकि उनकी हालत ऐसी होती थी कि कच्छा मिलता तो कुर्ता नसीब नहीं होता.उनके घर के बच्चे बछड़े की हाली जैसा ज़िम्मेदारियो का बोझ उठाना पैनो की मार खा कर सीख रहे होते.
घर मुसीबतों का पहाड़
छांग्या रुक्ख के दो अध्याय ,"कँटीली राहों का राही" (62-82) "हमारा घर मुसीबतों का घर" ( (90-101)) माधोपुरी के घर की वास्तविकता से रूबरू कराते हैं. घर कच्चा होता था जिससे बरसात में छतों से पानी चूता,दीवारें गिरती, घर में पानी भर जाता, जिसे बच्चे छोटी छोटी कटोरियों से बाहर उलीचते,गिरती शहतीर के नीचे टेक लगाते. उनका घर बरसात में जगह जगह से टपकता; टपकने वाली जगहों पर घर के सदस्य बर्तन रखते और पहरा देते. एक बरसात के दिन रसोई और आँगन की दीवार गिर गई और पानी घर में भरने लगा; घर के सद्स्य पूरा घर गिर जाने के डर से बाहर निकल आए ; पड़ोसी केंवल का घर गिर गया और वह उसमें दब गया.माधोपुरी के परिवार के सदस्यों ने उसके घर के मलबे को खोदा और उसे बाहर निकाला. एक रात बारिश में घर के बीच वाली शहतीर बैठ गई लेकिन किसी तरह घर के सभी लोग बच गए .गोलू मिट्टी ,जिससे कच्चे घर की बरसात में नंगी हो गईं दीवारें लीपी जाती थीं,खरीदनी पड़ती थी . उनके बापू कहते कि "रब ससुरा भी गरीबों पर ही जुल्म ढाता है.सूखा हो या बरसात, सुख- दुःख-दलिदर, चिंता- फिकर हमारे लिए ही रखे है साले".भारी बरसात के समय चमारली के सभी लोग अपने अपनी छतौ पर चढ़ कर छत में छेदों को ढूँढ कर मिट्टी से भरने लगते .एक महिला रात में मकान गिराने से दब कर मर गई. मसान आदि-धर्मियो और रमदसियो का साझा होता था . ऐसी कहर ढाती बरसात को जाट अपने कुओं के पानी तीन तीन हाथ ऊपर बढ़ने की खुशी बखान कर रहे थे जबकि चमाँरली के लोग बेघर और भूंखे खड़े हुए थे .गरीब गुरबो के घर के लोगों के होंठों पर मुस्कान भादों की एक आध बौछार की तरह आ जाया करती.उनके गाँव में भगत कथा सुनाता लेकिन जट्ट उन्हें भी कुछ नहीं देते.चूहदो की स्थिति चामारो से भी गई गुजरी हुई थी. माधोपुरी के पिता कहते कि हम कहने को हम हिन्दू हैं ,कोई बताये तो सही कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यो,शुद्रों में से हम किसमें आते हैं? ना हमारा धर्म,ना वर्ण. कई बार वह कहते कि हम सिक्ख बन जाएँ, लेकिन उनकी माँ कहती कि उन्हें तो हिन्दू और सिक्ख में कोई फर्क नहीं दिखता. उनके पिता भी स्वीकार करते कि जात -पाँत के बारे में सिक्खों में भी हिन्दुओं वाला यह कलंक मौजूद है. उनका मानना था कि कोई भी धर्म ले लो लेकिन हिन्दू ना रहो.माधोपुरी कहते हैं कि उन्हें यह मह्सूस हुआ कि हम पशुओ से भी बदतर हैं. हमसे तो पत्थर और बेज़ुबान पशु अच्छे हैं जिनकी कद्र होती है.गाँव के पूरब की ओर वाले दो रहट वाले कुंवे पर सिर्फ़ जट्ट, ब्राह्मण और सुनार स्त्रियाँ ही सिवयिन्या चढ़ाने आतीं. वह अच्छी कपड़े पहने होती और उनकी चाल में एक अकड़ दिखाई देती. दलित स्त्रियाँ मैले -कुचैले कपड़े पहने होतीं ,एक हाथ में खुर्पा-दरांती और दूसरे हाथ से सिर पर रखी कपड़े या घास की गठरी को पकड़े रहती. उनके मुहल्ले के बच्चे दोलहते कुंवे का चक्कर लगा लेते और सेंवैयान माँगते समय जाति- पांति के नाम फटकारे जाते.एक ही मुद्दे पर चमारोन और जत्तोन का नज़रिया अलग अलग होता.तमाशा दिखाने वाले गाँव में तमाशा दिखाते तब ज़मीदार कहता कि इनके लड़कों ने बड़ी मेन्ह्नत से अपना शरीर बना रखा है और हमारे लड़के शराब पी पी कर पेट बधाये जा रहे हैं.तमाशा खत्म होते ही बाज़ीगरो की टोली के पास गेंहूँ का एक बड़ा सा ढेर लग जाता; गुड़,चावल, और दालों की ढेरियाँ लग जाती; देशी घी और सरसों के तेल से बर्तन भर जाते; कुछ नगद रूपये जमा हो जाते.ज़मीदार इस देन्ह तुड़वाई और मेन्ह्नत की कदर ना कर के उन पर ताने कसते. उनके बापू कहते कि चार अख्खर पढ़ लिया कर,नहीं तो हमारी तरह ज़मीदारोन की गुलामी किया करेगा.
घर के पास के गुरद्वारे की बाड़ के जंगल में खरगोश, साँप, गोह, और नेवले रहते और एक बार साँप उनके घर की एक अन्धेरी कोठरी में घुस गया और ढूँढने पर नहीं मिला. उसके बाद बच्चे डरे डरे घर की उस कोठरी में जाते.घर के ही एक कोने में चक्की होती जिसमे उनकी माँ पूरे परिवार का आंटा पीसा करती.संयुक्त परिवार में ढेर सारे वयस्क सदस्य और छोटे बड़े बच्चे होते. कई अदद बच्चे कपड़े लत्तोन पर अधलेटे पड़े रहते और घर के अन्दर ही भैंसे और दूसरे जानवर (जैसे कि बकरी) भी बाँधे जाते. जानवरों की पेशाब और गोबर से घर दुर्गंध से भरा रहता. इसकी वजह से घर में बीमारी हर समय डेरा डाले पड़ी रहती और इलाज का कोई माकूल इंतेज़ाम नहीं होता. उनकी पाँच साल की तीसरी बहन के सिर में कीड़े पड़ गए और फिर उसे मोगा की एक फार्मेसी वालों के यहाँ लगातार एक महीने पट्टी के लिए ले जाना पड़ा.परिवार के सद्स्य जत्तो के घर /खेतों पर मंजूरी और बेगार करते. घर में खाने-पीने की बड़ी किल्लत रहती.प्याज, गुड़, राब, अचार या फिर लस्सी के खट्टे के साथ रोटी ही खाने को नसीब होती. जाड़े और मार्च-अप्रैल में जब घर में अनाज की बड़ी किल्लत होती तब जत्तो के कोल्हू से मैली माँग कर लाते और खा कर अपनी भूंख मिटाते. मैली पीना एक सिलसिला था.जट्ट बच्चे इसी लिए उन्हें "मैली पीणा" कह कर चिढ़ाया करते थे. सूखे या बरसात दोनों का ही कहर उनके ऊपर गिरता.नए जंनपे के वक्त माँ ख़ुद ही सौंफ, सोंठ, छोले, गेंहूँ, और अन्य कई चीजें पीस कर रखती जिसमे बाप घी मिला देता और फिर माँ के लिए "गिज़ा" बनता जो वह बच्चे/बच्ची के जन्म के बाद इश्तेमाल करती.
माधोपुरी की शिक्षा,शिक्षक, सहपाठी और पारिवारिक दशा
माधोपुरी "बादलों से झांकता सूरज" (83-89) और “साहित्य और राजनीति संग –संग” (177-189) में उनके स्कूल के शिक्षकों का उनसे और दूसरे चमार छात्रों से किए गए व्यव्हार को इंगित करते हैं. माधोपुरी अपने गाँव से 4-5 किलोमीटर दूर् स्कूल को पढ़ने पैदल चल कर जाते, लौटते समय घर के पशुओं के लिए चारा काट कर लाते. कभी गन्ना छीलने,कभी 15-20 किलो आंटा पिसवा कर लाते. लेकिन बापू फिर भी हमेशा उन्हें बद्नीता (कामचोर) ही कहता. स्कूल के मास्टर को ठीक से पता होता कि माधोपुरी और उनके ही जैसे और बच्चे गरीब घर के हैं लेकिन फिर भी वह वर्दी पहन कर ना आने के नाम पर उन्हें क्लास में खड़े रखा करता ! सोधी मास्टर उन्हें और दो अन्य दलित छात्रों को मास्टर के ढाई-तीन किलोमीटर दूर् गाँव सोहलपुर में खेत से काट कर भैंसों को चारा देने ,उन्हें नह्लाने की आज्ञा देता. वह लोग बिना किसी ना नुकुर किए उसे पूरा करते. मास्टर जत्तो के लड़कों को इस प्रकार की बेगार करने कभी नहीं भेजता क्योंकि ऐसा करने पर उसकी नाक तोड़ दी जाती .उनका सहपाठी रोशन उन्हें ज़मीदारो की हैसियत का हवाला दे कर जमीनी हक़ीक़त का एहसास दिलाता कि ज़मीदार उनकी गलियों में ऐसे ही दहादते नहीं फिरते हैं. मास्टर द्वारा बताई गई बेगार में सोनी मास्टर की घरवाली अपनी ओर से इजाफा कर देती. उनके घर भेजे जाने पर वह उन्हें दरांती पकड़ा देती और वह और रोशन पका हुआ बाजरा काटते ,उसे ढो कर उनके घर लाते और फिर उसका चारा काटते. पसीने में लुहान हो कर जब नल में पानी पीना चाहते तब उन्हें गन्दे पानी की निकासी वाली नाली की ओर दूर् से चुल्लू में पानी उड़ेला जाता. आठवें दर्ज़े में पड़ते हुए स्कूल की छुट्टियों में वह ज़मीदारो के खेतों में हांड़ तोड़ मज़दूरी करते.ओढ़ने को रज़ाई ना मिलती और एक झूल को रज़ाई की तरह दो जने ओढते. माधोपुरी का बाप कहता ,' मन में पक्का भरोसा रखो और अपने बल बूते पर खड़े हो जाओ'.
चमारो के काफी लड़के पढ़ने जाने लगे तब जट्ट बूझद की प्रतिक्रिया यह थी कि पढ़ने से इनका दिमाग खराब हो जाता है. जट्ट सोंचते थे कि पढ़ लिख कर इन्हे नौकरियाँ मिल जायेंगी तब हमारे खेतों में काम कौन करेगा.उनके पिता ने उन्हें कालेज में पढ़ाने के लिए कर्ज़ा लिया था .उसे ब्याज समेत वापस करना और 7 भाई- बहन वाले भारी भरकम घर का भार सम्भालने में उन्हें पिता का भार हलका करते रहना उनकी ज़िम्मेदारी थी. इसी लिए पढ़ते हुए भी दिहाड़ी करना भी उनकी मजबूरी थी. मंजूरी में चाय देते समय जट्ट कहते कि चाय चमारी है. उन्हें गुस्सा आता लेकिन मजबूरी में उन्हें अपने गुस्से को पी जाना पड़ता.दिहाड़ी के पैसों से एक शीशे का लैंप खरीदा और उसे बड़ी उपलब्द्धि मान कर खुश होते रहे.चार-पाँच किलोमीटर पैदल चल कर कालेज जाते. उनकी तारों ताई ने उनकी माँ को कहा था कि वह इनकी पढ़ाई छुड़ा कर रहट हाँकने के लिए भेज दे ताकि तारों ताई का बेटा अवतार स्कूल चला जाए.
अपने घर में पढ़ाई के लिए कोई उपयुक्त जगह ना होने के कारण उन्होंने ताये की घर की बैठक की बिना पल्लों वाली खिड़की के सामने पढ़ने लिखने का समान और लैंप रख कर एक रस्सी बाँध दी. उस पर परदा डाल कर पढ़ने का अपना डेरा बनाया. एक रात तेज़ आँधी और बारिश में वह सब गड्ड मड्ड हो गया. लैंप टूट गया. पढ़ने का दूसरा डेरा उन्होंने हरी राम की बैठक में डाला. वहाँ वह ऐसे रमे कि घर के साथ वास्ता किसी काम या रोटी खाने तक ही रह गया . दिहाड़ी की रकम कोर्स के अलावा मार्क्सवादी और ढेर सारी पुस्तकें से खरीद दाली.
जाति व्यवस्था की सोंच और व्यवहार का श्रोत
माधोपुरी जाति व्यवस्था के सोंच और व्यवहार का श्रोत और उसको पुष्ट करते रहने के विषय को "ब्रह्मा के थोथे चक्रव्यूह" (102-113) में व्यक्त करते हैं. माधोपुरी के गाँव की चमारटोली में अन्धे संत गरीब दास ने बताया कि ब्रह्मा के विभिन अंगों से चार बच्चों का जन्म हुआ था जो जाति व्यवस्था के चार वर्णों के प्रतिनिधि बने. कुछ सुनने वालों ने इस पर शंका व्यक्त की कि यह एक जानबूझ कर फैलाया गया मिथक है ताकि तथाकथित नीची जातियों के लोग भ्रम में पड़े रहे और समाज में अपनी नीच स्थिति को ईश्वर की इच्छा मान लें. जाति व्यवस्था के सोंच को ब्राह्मणों द्वारा निरंतर पुष्ठ किया जाता रहता है. इसे विभिन धार्मिक संस्थाये, धर्मगुरु और चलायमन बाबा/संत/ गवैय्ये निरंतर करते रहते हैं. उनके पिता ने कहा कि हम सब अन्धे हैं. जैसे किसी ने ऊंच -नीच के सम्बंद्ध में कह दिया ,वैसा ही हमने मान लिया. माधोपुरी कहते हैं कि उन्होंने इसके बाद महसूस किया कि दूसरों के विचारों से उनके खयालो में कुछ नया नया सा उभरता जा रहा है. उन्हें लगा कि वह ब्रह्मा के थोथे चक्रव्यूह से इस प्रकार बाहर निकल आए हैं जैसे धरती के गुरुत्वाकर्षण से मनुष्य! "भूंख प्यास ना पूंछे जात" (109-113) में माधोपुरी यह बताते हैं कि असाधारण स्थिति में स्वर्ण भी जाति पात के भेदभाव को भूल जाते हैं! लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर माधोपुरी के स्कूल में शोक सभा में शिक्षक ने शास्त्री की गरीब पृष्ठभूमि को याद किया. माधोपुरी ने शास्त्री की स्थिति से यह महत्वपूर्ण वैचारिक सीख ली कि गरीबी में मेन्ह्नत और ध्रढ़ निश्चय के बल पर प्रधान मन्त्री के बड़े पद तक भी पँहुचा जा सकता है तो उन्हें भी पूरी हिम्मत से पढ़ना चाहिये! अकाल और सूखे के दिनों में उनके दरवाजे एक अच्छे कपड़े पहने सवर्ण जोड़ा आया. वह दोनों और उनके दोनों बच्चे भूंखे थे. यह जानते हुए भी कि माधोपुरी का परिवार चमार जाति का था उन्होंने खाने के लिए रोटी माँगी. अकाल ने राजा को रंक बना दिया था.
माधोपुरी पंजाब के चमारो की स्थिति को उत्तर प्रदेश के पुर्बियोन से तुलना करते हुए बताते हैं कि पूरबिये उनके पिता को बता रहे थे कि उन्हें अपने और बच्चों के नाम गड़बड़ किस्म के ही रखने पड़ते हैं. एक पुरबिया दलित ने अपना नाम उदय सिंह रख लिया था तब ठाकुर लट्ठ ले कर आ गए थे यह कहते हुए कि तुम हमारे नाम नहीं रख सकते. हार कर उदय सिंह का नाम बुद्धू हो गया. पूर्वी उत्तर प्रदेश में दलितों के घर की नई शादी की डोली सीधे ठाकुरों के घर जाती थी. वह जब चाहते दलितों की बहू बेटियों को हवेली बुला लेते. होली के दिन ठाकुर घर आ कर कहते कि अपनी औरतों को कहो कि हमारा दिल बह्लाये .मुम्बई में वेश्या का पेशा ऊँची नीची दोनों तरह की जातियों की औरतें करती हैं लेकिन गॊरी होने के कारण ऊँची जातियों की वैश्याओ के रेट ऊँचे होते हैं. उनके पिता ने कहा करते कि हर तीसरे दिन ज़रीब झंदियो के साथ आ कर दलितों के घर आँगन में निशान लगा कर कहते हैं कि वह घर ज़मीदारो की छोड़ी हुई ‘शामिलात’ में हैं. इसे सुन कर पूरबिये ने कहा कि उनकी हालत तो और भी बदतर है और उन्हें ऐसा लगता है कि उनकी बहू बेटियाँ भी सवर्णों की ‘शामिलात’ हैं!
एक मित्र पिछड़ी जाति का था लेकिन खालसा कालेज में अपने को जट्ट बताता था. माधोपुरी को यकायक उसके घर जाने पर उसकी जातिगत असलियत का भान हुआ.माधोपुरी कहते हैं कि पिछड़ी जातियाँ को अछूतों को साथ मिल कर चलने की जरूरत है लेकिन वह अकसर ऐसा नहीं करते. पंजाब के खालिस्तानी दह्शत्गर्दी के दौर में सरदारनी उनके परिवार को खालिस्तान में ही बने रहने के लिए इस लिए कहती क्योंकि उनका गोबर और कूड़ा कौन उठाता! रूसी लेखक निकोलाई ओस्तोवस्की के प्रसिद्ध उपन्यास "कबहूं ना छोड़े खेत" का अनुवाद पढ़ा. उसी से हर हालत में बुलंद हौसला रखने की सीख मिली.
जाति मुद्दे पर कम्युनिश्तो की लाइन
1974-75 में कम्युनिश्त पार्टी के कार्कून बन गए .कम्युनिश्त पार्टी में काम करते करते यह पाया की कामरेड भी देश की सामाजिक व्यवस्था की नग्न वास्तविकता को चद्दर के नीचे ढके रहते. उन्हें कम्युनिश्त भी मेन्ह्नत्कश लोगों को मनुश्य ना समझने की बेईमानी को कायम रखने की साज़िश के ही हिस्से लगते. माधोपुरी कम्युनिश्तो के दोगले पान को "बिरादरी का मसला" (114-124) में उजागर करते हैं.उनके पिता कहा करते कि उनके परिवार के लोग पीढ़ियों से गरीबी-भूंख के घोर दलिदर हींन जाति की भावना के शिकार हैं. रब उनके हालात से ज़रूर परिचित होगा,नहीं तो उनका कारज़ भी संवार देता. एक ओर कामरेड लोग तकरीर देते " स्वर्ग का लालच देना, मनुष्य को मनुष्य की ओर से लूटने की एक सोंची समझी चाल है. आराम पसंद टोला जिस मेन्हनतकश समाज के दम पर पलता है,उसे ही कोसता रहता है,मोह माया से दूर् रहने को कहता है और ख़ुद गर्दन तक उसी में धँसा हुआ है".लेकिन वही कामरेड लोग मज़दूरी दर बढ़ाने के मुद्दे पर बहाना बना कर ज़मीदारो का ही साथ देते. गाँव के मज़दूरों ने जब एक रुपया प्रति दिन मज़दूरी बढ़ाने की माँग की तब सभी जट्ट लट्ठ ले कर अपने खेतों के चक्कर लगाने लगे ताकि उनके खेतों को कोई नीच जात हगने ना बैठ पाये. इस तरह आर्थिक एकाधिकार के कारण चमारॉन की बड़ी वाजिब माँग भी अनसुनी रह जाती.
दलित ब्राह्मणों में सामाजिक पूँजी का अकाल
माधोपुरी दलित ब्राह्मणों में सामाजिक पूँजी के अकाल का को "बरसात में सूखा" (125-132) में बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत कराते हैं. वह बताते हैं कि 1964 में बड़े भाई बिरजू (बख्शी) ने दसवीं में पढ़ाईं छोड़ दी और उनके निर्णय से इससे बाप को बड़ा ही सदमा लगा. फिर बिरजू बाप के साथ मंजूरी को जाने लगा. माधोपुरी के मामा आई ये यस बन गये थे. उनके पिता ने अपने ऐ ये यस साले को बिरजू को उस मिल में नौकरी लगवाने के लिए कहा था जिसमें उनकी पोस्टिंग थी लेकिन वह हर बार कोई ना कोई बहाना बना देते रहे . आख़िर में उन्होंने कह दिया कि वह गैर -पढ़ें लिखे की सिफारिश नहीं करेंगे.पिता ने उसके बाद उनसे कहना ही बंद कर दिया लेकिन माँ से पुलिस महकमे में भरती के लिए कहलवाया लेकिन बिरजू की भर्ती इसी तरह नहीं हुई जैसे सावन-भादों के बदल साथ वाली मेंड़ को सूखा छोड़ जाता है.फिर बिरजू को बस के कंडक्टर के लिए लाइसेंस बनवा कर उसे तेम्पोररी कंडक्टरी दिलवा दी गई लेकिन नौकरी पक्की नहीं हुई क्योंकि उनके मामा किसी सीनियर या जूनियर से बात के लिए तैय्यार नहीं हुए. वह दूसरों के काम तो करते थे लेकिन "अपनो" को पीछॆ छोड़ देते थे, उनके बाप कहते थे कि बड़े अफसर बन जाने पर ऐसे लोग रिश्तेदारिया छोड़ देते हैं.
दादी के माध्यम से पारिवारिक ज़िन्दगी का इतिहास
माधोपुरी "मेरी दादी-एक इतिहास" (133-141)में उनके परिवार के द्वारा जी जाने वाली ज़िन्दगी का एक बीती पीढ़ी का इतिहास बयाँ करते हैं. स्कूल में बंद डिब्बों का दूध गरीब बच्चों को दिया जाता था जो माधोपुरी जैसी पृष्ठभूमि वाले ख़ुद ना पी कर घर को चाय बनाने के लिए ले आया करते थे. उनकी दादी दूसरों के घर की मुर्गी काटने का काम करती. एक दिन दादी ने उन्हें ही यह नेक काम सौँप दिया.दादी के समय में उनके घरों में पहले मरे हुए जानवरों का मांस भी खाया जाता था. घर में पशुओं की चर्बी के पीपे भरे रखे रहते थे और घर का दिया चर्बी से ही जला करता था.रोज़ खाने को अन्न नहीं मिलता था और इसी लिए मरे हुए जानवरों का मांस सुखा कर खाने के लिए रख लिया जाता था. लेकिन यह धीरे धीरे छूट गया. माधोपुरी को कभी कभी फांके भी करने पड़े. दादी इतनी मेन्ह्नत्कश होती थी कि वह सुबह होने तक दस सेर अंता आंटा पीस चुकी होती थीं. वह अपनी सलवार कमीज ख़ुद ही सिल लेती थीं. वह नहाने के लिए पानी ना गर्म कर धूप में रखे पानी से ही नहा लेती थीं. जट्ट औरते उन्हें रोटी देने के लिए बुलाती और वह वहाँ जा कर रोटी ले कर तुरंत लौट आतीं थीं . वह पास के गुरद्वारे से बाँटा जाने वाला पूरी थाल दलिया भरवा लाती और फिर देशी घी डाल कर खाती. उन्हे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे बैठे रस, गुड़, साग, मक्खन, और गन्ने मिल जाते. लोन्हड़ी के दिन जत्तो के घर से चावलों की खीर आती जिसे माधोपुरी का परिवार कई दिन खाता.गाँव के जट्ट शादी ब्याह के कारजो में दादी से सलाह लेने आया करते थे. वह जैसा कहती वैसे ही वह कारज पूरे किए जाते. उनका यह रुतबा था कि किसी जट्ट के आने पर भी वह अपनी चारपाई से नहीं उतरती थीं.वह अपने कपड़े भी ख़ुद ही धोती थीं. सेहत गिरती रहने पर भी वह लस्सी, गन्ने का रस, मैली, साँग, मक्खन, मक्की की रोटी पहले की ही तरह खाती रहीं. खाते वक्त रोटी का टुकड़ा चिड़ियाओं को ज़रूर देतीं. चिड़ियाओं को भीउनमें अपनापन दिखता और दादी के चारपाई पर उनके बैठते ही उनके पास बीस-तीस चिड़िया आ बैठती.अंत में दादी खाट पर पड़ गईं .वह 100 साल के क़रीब उम्र की होंगी. उन्होंने आखिरी बार गोश्त का शोरबा खाने की इच्छा जाहिर की. खाने के बाद वह 2 मई, 1976 को दिवंगत हो गईं.
एक अमानती स्थान का वैयक्तिकृत इतिहास
तुलसीराम के गाँव के मुर्दहिया मुहल्ले को समालोचको ने मुर्दहिया संस्कृति के व्यक्तिक्रत संस्कृति के प्रतिनिधि के रुप में स्वीकारा है. मेरी नजर में माधोपुरी की आत्म-कथा में कई अध्याय ऐसे हैं जो उससे एक्कीस साबित होते हैं. "हम,चमारो का बरगद" (142-154) एक ऐसा ही अध्याय है जो माधोपुर की चामरली के बरगद के स्थान और स्थानीय अप-संस्कृति का अनूठा वैयक्तीकरन है! माधोपुरी बताते हैं कि 16 मरले की ज़मीन,जो उनके परिवार ने बिना लिखत-पढ़त के खरीदी थी, पर बरगद का पेंड़ लगा था.उसके साथ एक पीपल भी था. यह बरगद -पीपल चामरली के इतिहास के गवाह थे! जट्ट, ब्राह्मण,आदि सभी जातियों का सतनाज़ा बरगद को चमारो का बरगद कहता था. मज़दूरी पर गेंहूँ काटने के लिए जट्ट कच्छा पहने हुए रात को बरगद के नीचे चक्कर लगाया करते थे. उस समय तीनों बखत खाना और दो बार की चाय मंजूरी में शामिल होती थी. इन पेंड़ों पर सुबह-शाम मोर और दूसरे पंछी बैठते. बरगद में मौली के धागे बाँध कर ही शादी ब्याह किए जाते.उन्ही के नीचे बिरादरी के कई परिवारों की खद्दियान थीं जिनपर उनकी रोज़ी रोती चलती थी.पड़ोसी जट्ट भी बातें करने वहाँ आ कर बैठते. खद्दियोन पर फौज के लिए तौलिये, लहरिया,सिल्क-लिलन की 110-110 गाज के थान बुने जाते.चमार बुनकरों को मात्र पाँच रूपये एक थान के बुनने के मिलते. कच्चा और बना माल बुनकरों को अपने सिर पर लाद कर ही लाना-ले जाना होता. कच्चे माल को लाने और बने माल को ले जाने जाए वाले गाँव 7-27 किलोमीटर की दूरी पर होते थे.थानेदार दो थान रख लेता और धेला भी ना देता. उनका ताया हीर-रांझा का किस्सा इन्ही बरगद-पीपल के नीचे अपनी सुरीली आवाज़ में सुनाया करता . अन्धा साधु गरीब दास गर्मियों में बरगद के नीचे तमाम 'किस्से' सुनाया करता. बरगद के नीचे ही एक चमार सूफी बन गया साधु असलम गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ किया करता.बरगद-पीपल के नीचे चामरडी में गुरु ग्रन्थ पाठ आयोजित किया जाता और वहाँ पर सभी बिरादरी के लोग उसे सुनने को आते लेकिन परसाद लेने के समय बहाने बना कर खिसक जाते. उन्ही पेंदो के नीचे उनका परिवार दूसरों की भैंसे पालने के लिए रखता लेकिन भैंसे ब्याने के समय उनके मालिक खींच ले जाया करते.चमार नाई रुलिया ही उनके उलटे सीधे बाल काटता. हिन्दू नाई चमारो के बाल ना काटते.बरगद के नीचे 'नकलेन' और 'साल'(पशुओं के मुँह और खुर की बीमारी रोकने के लिए सिद्ध देवता को रिझाने का आयोजन) होता. गाय-भैंस के दूध न देने पर भी 'साल' के ओझा से ही झाड़़ फूँक करवाई जाती. इसकी पूरी रस्म पशुओं को एक एक कर निकाल कर पूरी की जाती.नंबरदार थानेदार की घोड़ी के लिए घास ले कर थाने को आने का हुकुम देता. किसी भी हालत में उसे ले जाना ही नहीं होता बल्कि उसके ठीक-ठाक होने की परख हो जाने तक चमारोन को वहीं खड़े भी रहना पड़ता.जैलदार और नंबरदार की घोड़ी की तापो की अवाज़ ना सुन पाने के कारण उसकी रास ना पकड़ने पर बड़ी धौंस जमाई जाती और बुरा भला कहा जाता.ज़मीदारो द्वारा फरवरी 1972 में, जब माधोपुरी 10वीं में पढ़ रहे थे, बरगद-पीपल काट डाले गए. इस तरह चमारो का एक इतिहास समाप्त हो गया.
भावनात्मक लगाव वाले रिश्ते
"रेगिस्तान में बहा दरिया" (155-170) माधोपुरी के कुछ भावनात्मक लगाव वाले रिश्तों का ज़िक्र करता है. सोहलपुर में रहने वाले उनके एक ताये से उनके परिवार के बड़े घनिष्ठ सम्बंद्ध रहते थे.उनके पिता जी उन्हें बहुत मानते थे. वह घोड़ा बन कर अपनी पीठ पर माधोपुरी को झूल देते.1965 में उनकी मौत हो गई.ताये की मौत के समय उनकी यह चाची गर्भ से थीं और मौत के बाद उनके एक लड़की (देबी)हुई. माधोपुरी उसे बहुत घुले मिलें होते थे और बहुत मानते थे. दादी उनकी बड़ाई के लिए जब उनसे कहती कि कन्धे पर रखे फावड़े से तो तू निरा जट्ट लगता है,तब जत्तोन के व्यवहार से खुन्नास माधोपुरी को इससे बहुत बुरा लगता.1977 में चाचा अर्जन सिंह भी गुजर गए. वह कभी कभी माधोपुरी की फीस और दूसरे खर्चे भी पूरा किया करते थे.माधोपुरी की जब यफ सी आई में नौकरी लगी उस समय देबी 7वीं में पढ़ रही थी.1980 में बाऊ भी खत्म हो गए और नदी में बाढ़ के कारण माधोपुरी के गाँव कोई सूचना देने नहीं आ पाया.मार्च 1983 में उनकी दिल्ली बदली हो गई.उनकी दादी दिल्ली के बंगला साहिब में अरदास के लिए अकसर कहा करती थीं. उनके दिल्ली आने पर दादी और बुआ दिल्ली आई और गुरुद्वारा बंगला साहिब में अरदास की. उसके कुछ ही दिन बाद वह दिवंगत हो गईं.
पेशेगत ज़िन्दगी में भेदभाव और शोषण
"अपने नाम से नफरत" (171-176) माधोपुरी के बलबीर चंद के जाति सूचक नाम से चिढ़ होने से संबंधित घटनाओं से संबंधित है. उन्हें अपने नाम का पहला हिस्स 'बलबीर' का अर्थ अच्छा लगता. दूसरा हिस्सा 'चंद' हिंदू आस्था से जुड़ा लगता जिसने चमारो को शिकंजे में कसा हुआ है, और उससे हीन-कमीन की दुर्गंधि फैलती महसूस होती. वह नाम बदलने की जुगत सोंचते थे लेकिन नाम बदलने में बड़े झन्झट थे.
माधोपुरी नौकरी और पेशेगत ज़िन्दगी में भेदभाव और शोषण की त्रासदी को छंग्या रुक्ख के पृष्ठ 180 से आगे के पृष्ठों में बड़ी साफगोई से सामने रखते हैं. वह यफ सी आई में 1978 में भर्ती हुए थे और उनकी यफ सी ऐ कर्मियों के सामूहिक हितों के मुद्दों पर सक्रियता के कारण अगले साल उसकी यूनियन के जिला सचिव भी चुने गए.यफ सी आई में माल बनाने के हजारों तरह के धन्धे चलते, शराबखोरी और औरत बाज़ी होती. चूँकि वह ऐसे नहीं थे इस लिए उन्हें 'काना ' करने की बातें होती.काले धंधों में भागीदारी ना करने की वजह से उनका तबादला एक पैंतिस किलोमीटर दूर् जगह कर दिया गया. घर से इतनी दूर् रोजाना साइकिल से आना जाना संभव नही होने के कारण वह हफ्ते में दो-एक बार ही घर आ पाते.ईमानदारी के अवगुण के कारण वहाँ से भी तीन महीनो में उन्हें भुल्लथ के स्टोर का इंचार्ज बना कर तबादला कर दिया गया. वह वहाँ भी धान की चोरी रोकने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे होते. ईमानदार माधोपुरी के लिए यफ सी आई के इस खुले भ्रष्ट वातावरण में नौकरी एक बोझ हो गई. वह नौकरी छोड़ने की सोंचने लगे . उन्होंने इसी के चलते प्राइवेट ये में पास किया.
एक कटे हाथ वाले बिहारी को कुछ मदद दी लेकिन वह भी उनके घर खाना खाने के बाद उनकी जाति जान कर उल्टी करने की बात करने लगा.1983 में अँगरेजी से पंजाबी और पंजाबी से अँगरेजी अनुवाद करना सीखने के बाद उन्होंने उसका टेस्ट पास किया और बुआ के बेटे दौलत राम की मदद से सूचना और प्रसारण मंत्रालय की पी आई बी में उन्हें क्लास टू की नान गजेतेद अफसर के रुप में उन्हें नियुक्ति मिल गई. वह पंजाबी समाचारों का अनुवाद और खाली समय कुछ लिखने लग गए. खालिस्तानी आतंकवाद के दिनों उन्होंने बड़ी दह्शत् भरी ज़िन्दगी जीनी पड़ी. गाँव के पास आतंकवादियों ने घेर लिया. पर्स और घड़ी रखी और वहाँ से भाग कर जान बचाई.बचे भी इस लिए क्योंकि सिर पर पगड़ी बाँध रखी थी.
1986 में उनका प्रोबेशन पूरा हो गया और उनकी नौकरी पक्की हो गई. उनकी बदली नई दिल्ली हो गई. वह पार्टी के द़फ्तर गए वहाँ ज़िला सचिव ने कहा कि अब तू मैनेजमेंट का हिस्सा बन गया है..... तू अब इधर अधिक ना आए. वैसे भी तू कौन सा कार्ड होल्डर है.चलते वक्त पिता ने उन्हें चेताया कि यह ना हो कि तू पीछॆ मुड़ के ही ना देखे. अभी पूरी कबीलदारी ब्याह -शादी के लिए पड़ी है.
सजातीय जातिवाद और सवर्ण जातिवाद से निबटने का उपाय
"मानवतावादी थप्पड़" (201-5)में माधोपुरी ने परजीवी साहित्यकारों के कुछ चुटीले शब्दचित्र पाठकों को परोसे हैं.उनके नाम बलबीर चंद को ले कर स्वजातीय डा0 मोहे से बार बार व्यंग बाण सुनने से तंग आ कर उन्होंने सरकारी कागजों में अपना नाम बलबीर माधोपुरी करा लिया. इन साहित्यकारों की मीटिंग पार्लियामेंट स्ट्रीट की पी टी आई बिल्डिंग के बाहर लगा करती थी लेकिन इनमें साहित्य- संस्कृति संबन्धी कोई बात नहीं होती थी! मोहे और उनका एक दलित साथी माधोपुरी को जड़ -बुद्धि कहते.एक दिन वह मोहे के साथ गुरु डी डी शर्मा के सत्संग चले गए. बातचीत में शर्मा ने रविदास को गुरु ही नहीं माना. वह स्व्यं को पिछले जन्म का याज्ञवल्क बताते लेकिन जात पात को पिछले जन्म का फल बताते. इन गुरु शर्मा जी की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ जानकारी एकत्रित की गई तो शर्मा जी की लड़की ने बताया कि पिता के कारण अब वह ना विवाहितों में है और ना ही कुंवारियो में! माधोपुरी का सत्संग से मोह भंग हो गया . शर्मा जी के साथ रहने वाली औरत मोहे को कह गई कि तुम रहे चमार के चमार ही! गज़लगो साहित्यकार ने डा0 मोहे को रिटायरमेंट के बाद पालिश की दब्बी और ब्रश ले कर वहीं बैठने का व्यंग बार बार किया और आखिरकार तंग आ कर मोहे ने उसके गालों पर कई थप्पड़ जड़ दिए.कार्यालय के सवर्ण साथी अधिकारी राव ने उनकी असोसियेशन के अध्यक्ष चुने जाने पर बराबर बैठने पर ऐतराज जताया . उन्हें लगा कि जातिवाद ऐसी बीमारी है जिसपर मोहे फार्मूला (जातिवाद के मुँह पर करारा थप्पड़) ही अधिक कारगर होगा!
दिल्ली में किराये के मकान में जातिवाद
माधोपुरी "किरायेदारी की लानत" (206-14) दिल्ली में उनसे हुए किराये के मकान की उप्लब्द्ध्ता में बरते गए जातिवाद को दर्शाते हैं. उन्होंने बग़ैर दहेज और कुल 11 लोगों की बारात के साथ शादी की. दिल्ली में नौकरी के शुरुवाती दौर में कई साल वह अपने बदे भाई के साथ बड़ी कठिनाई में रहे. नों,दो बहनों और अपने से बड़े दो भाइयों के विवाहों ने उन्हें तंगी के समुद्र में फेंक दिया.प्रोविडेण्ट फंड से बार बार रकम निकालने की वजह से उनका वेतन घट कर दो हज़ार हो गया. उसमे से वह अपने लिए तीसरा हिस्सा रखते और शेष दो तिहाई रकम माधोपुर और बड़े भाई को गुजारे के लिए देते. भाभी ने आखिरकार घर से चले जाने को कह दिया. उन्होंने किराये के मकान में रहना शुरू किया और यहीं से उनकी राग जाति किराये मकान शुरू हुआ. मकान लेते, और जिस समय मकान मालिक को पता लगता कि वह पंजाब के सिक्ख नहीं बल्कि रमदसिया चमार हैं वह उन्हें घर से निकाल फेंकता. उन्हें बार बार घर के लिए अद्वांस और बच्चों के स्कूल के डोनेशन के लिए भारी रकम का इंतेज़ाम कराना पड़ता.उन्होंने मुनीरका में एक कमरे का किराये का मकान लिया. तब तक शादी के 6 सालों में उनके तीन बच्चे हो गए थे.पाँच जनों का परिवार एक ही चारपाई पर एक ही रज़ाई पर सोया करता. मकान मालिक ने जात पूंछी और मकान खाली करना पड़ गया. पाँच हज़ार अद्वांस दे कर आर के पुरम् के सेक्टर -4 में पन्हुचे.बेटी का स्कूल बहुत दूर् हो गया था इसलिए उसे स्कूटर से छोड़ने और लेने जाते. यह सरकारी मकान था जिसका आधिकारिक आंबतन एक महिला के पास था. उस महिला ने उसे किसी दूसरे को सब्लेत कर दिया था. माधोपुरी ने यह मकान इस सब्लेती से किराये पर लिया. यह गैर- कानूनी था और जब अधिक्रित महिला को इसकी जानकारी हुई तब उसने माधोपुरी से इस तथ्य का पूरा फायदा उठाया. माधोपुरी को मकान को फिर खाली करना पड़ा. दूसरा मकान उसी मुहल्ले में पाँच हज़ार का अद्वांस दे कर लिया और फिर थोड़े ही दिनों में उसे भी खाली कर पालम के जैन मुहल्ले चले गए. .चार वर्षों में 6 मकान बदले. जर्जर आर्थिक स्थिति से निबटने के लिए वह अनुवाद का काम करने लगे . पालम में ही एक प्लाट खरीद लिया और निजी मकान बनवाने की जुगत में लग गए.
मेरी नजर में माधोपुरी और छांग्या रुक्ख
मेरी नजर में हिन्दी में अभी तक प्रकाशित सभी दलित आत्मकथाओ में बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि जैसा कि सतिन्दर सिंह नूर कहते हैं कि वह दलित साहित्य शास्त्र के शिल्प और सौन्दर्य को परखने के लिए विवश करती है; वह गद्य में लिखित बड़ा प्रभावी काव्यात्मक और गहन समाजशास्त्रीय विश्लेषण है; उसके विभिन्न अध्यायों के शीर्षक तक काव्यमय और प्रतीकात्मक हैं; उसकी शैली अन्य पंजाबी और हिन्दी के साहित्यकारों से बिलकुल अलग है. इस आत्मकथा की श्रेष्ठता इसी तथ्य से स्थापित हो जाती है कि वह हिन्दी के अतिरिक्त कई अन्य भारतीय भाषाओं और अँगरेजी में अनूदित हो कर प्रकाशित हो चुकी है. इस पुस्तक में ही कमलेश्वर ,प्रोफ सतेंदर सिंह नूर, और श्योराज सिंह बेचैन का अपना अपना आँकलन भी साथ साथ में संलग्न है जो माधोपुरी की शैली, शिल्प और कथ्य के निरालेपन को रेखांकित करते हैं.
मेरी नजर में तुलसीराम प्रथमतः एक चर्चित समाज विज्ञानी थे. ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ लिखने के उपरांत वह समाज विज्ञानियों में उन कुछ बिरले हंसो में शामिल हो गए जिन्होंने अपनी भुक्तभोगी आत्म-कथा समाज विज्ञानी शोध की एक कठिन विधा, होलिस्तिक आटो इथ्नोग्राफी में ऐसे लिखी कि वह एक उच्च श्रेणी के साहित्यकार भी स्थापित हो गए. माधोपुरी की स्थिति तुलसीराम से ठीक विपरीत रही. माधोपुरी समाज विज्ञानी नहीं थे लेकिन वह छांग्या रुक्ख लिखने से पूर्व ही एक उच्च श्रेणी के पंजाबी साहित्याकार के रुप में स्थापित थे. 'छांग्या रुक्ख' इतनी उच्च श्रेणी की होलिस्तिक आटो इथनोग्राफी है कि वह उन्हें एक उच्च श्रेणी का ही नहीं बल्कि बिरले किस्म का समाज विज्ञानी भी स्थापित कर देती है! साह्त्यिक और समाज विज्ञानी दृष्टिकोणों से तुलसीराम की मुर्दहिया और मणिकर्णिका और माधोपुरी की छांग्या रुक्ख की तुलना करने पर यह साफ़ हो जाता है कि अपनी भाषा और शैली की दृष्टि से माधोपुरी तुलसीराम से कहीं बेहतर हैं यद्यपि दोनों की ही होलिस्तिक आटो इथनोग्राफी बेमिशाल है.
पंजाब के समाज में रमदसिया, मज़हबी और पुरबिया तीन प्रकार के दलित रहते हैं और भेदभाव, शोषण ,अपवंचन, और हिंसा के शिकार होते हैं लेकिन यह सब कुछ इन तीनों से पंजाब के सवर्ण समाज द्वारा किया जा रहा व्यवहार अलग अलग श्रेणी का है. समाज विज्ञानियों ने इन सभी का अध्ययन किया है. माधोपुरी एक रमदसिया दलित हैं और उनकी छांग्या रुक्ख मात्र रमदसिया दलितो की भुक्तभोगी आत्म- कथा है लेकिन अपने मर्मस्पर्शी विश्लेषण से वह हिंदू और सिक्ख दोनों ही धर्मो के अनुयायिइओ द्वारा बुरी तरह शोषित किया जाने वाला ऐसा कथ्य प्रस्तुत करती है जैसा पंजाब में अभी तक किए गए किसी समाज विज्ञानी अध्ययन ने कभी नहीं किया! एक अन्य दृष्टिकोण से भी माधोपुरी की छांग्या रुक्ख बड़ी नायाब कृति साबित होती है. उसका रमदसिया दलितों से किया गया भेदभाव, अपवंचन, शोषण और हिंसा का विश्लेषण कई ऐसे कई पहलू भी उजागर करता है जिस पर छुआछूत निवारण अधिनियम,अनुसूचित जाति और अनुसूचित् जनजाति न्रशंश्ता निवारण अधिनियम और भारतीय दंड संहिता कोई संज्ञान ही नही लेते!
छांग्या रुक्ख के पंजाबी लालित्य का रसास्वादन शायद मैं कर ही नहीं सकता था यदि सुभाष नीरव जी ने उसका इतना उच्चस्तरीय अनुवाद हिन्दी में ना उप्लब्द्ध कराया होता. नीरव जी ने उसकी पंजाबी मौलिकता को अनूदित हिन्दी रुप में सँजोये रखा है और इसके लिए वह हम सभी से बधाई के पात्र है. (17 सितंबर,2016)
This novel’s stow, refined and esthetic language is an example that enables it to take a significant place in the Indian Dalit Literature. This text is a great achievement of the year-2020.
Changiya Rukh (Autobiography) by Balbir Madhopuri A powerful literary testimony to the angst, suffering and attempted rebellion of a dalit community in Punjab…
My Caste-My Shadow (selected poems) by Balbir Madhopuri The poet desires that his poetry should have a direction and provide meaningful guidance to the people and hopes to inspire others despite being ‘dark-skinned’ that has an explicit message for the society. And the English version by T.C. Ghai recreates the same intense emotions and delivers humanitarian message to awaken society towards stimulating Dalit consciousness.